मोबाइल फ़ोन का अलार्म उठने का आदेश दे रहा था पर उसकी आँखें न जाने कबसे जगी हुई थी। जब कभी भी उसे कोई ट्रेन या फ्लाइट पकड़नी होती है तो उसके अन्दर एक कौतुहल सी बनी रहती है। यह जानते हुए की रात भर वह खुद एक घड़ी की सुई बनकर करवटें खाते रहेगा, वह अपने बगल के मेज़ पर फ़ोन में अलार्म ज़रूर लगाता था। समय पर स्टेशन या एयरपोर्ट न पहुँचने का डर उसे हमेशा से ही रहा है। पर आज वह टुकुर टुकुर अपने होटल के कमरे को घंटों से ताक रहा था और उसका मन भी एक सेकंड के सुई के भांति अशांत था। एक कमज़ोर मरीज़ की तरह वह अपने बिस्तर के किनारे उठकर बैठ गया। उसके दोनों हाथ उसके बोझिल कन्धों का सहारा बने उसे गिरने से रोक रहे थे। आज शायद हृदय का भार बाहर छलकने लगा था। अपने सामने पड़ी स्थिर ज़मीन को उजड़ी हुई सो निगाहों से वह देखता रहा। "आखिर अच्छा बने रहना इतना मुश्किल क्यों हैं?" यह सवाल उसके कई चोटों की भेंट थी। इस भेंट को वह कुछ दिनों से खुरेंच खुरेंच कर खोलने की कोशिश कर रहा था। पर जब मरीज़ अपने मर्ज़ को पास पायें तो हर दवा पानी के भाव बह जाती है। भारी कदमों से चलकर उसने ठन्डे पानी का नल खोला और अपने चेहरे पे जमी शिकन को धोने की कोशिश की। आईने में अपने आप को देखा तो अपने सवालों का प्रतिबिम्ब ही निहार सका। आखिर आज वो इतना कमज़ोर क्यों पड़ रहा था? सदा ही दृढ़ संकल्प को अपना लोहा मानने वाला आज अपने घुटनों को पिघलते हुए महसूस कर रहा था। उसने अपने विचलित मन को टटोला और यही पाया की यह कर्मभूमि का प्राणी आज अपने रणक्षेत्र से परे है, इसलिए असहाय है। सालों से जब हालात बिगड़े तो उसने अपने काम को ही अपना निश्छंद द्वार माना है, उसे वहाँ कोई रोकता टोकता नहीं, वहाँ उसकी छाया भी आज़ाद है। अपनी उस द्वार को उसने कुछ समय के लिए क्या छोड़ा, ना जाने कितनी लकीरें उसके माथे पर वार कर गयी। दूसरों के लिए अच्छा होना मुश्किल है और अपने प्रति कायरता भी है, पर उसे जीने का कोई और अंदाज़ नहीं आता। शायद आज इसीलिए मन एक चक्रव्यूह घोल रहा है और वह एक पतली बाँध से टिका हुआ गाँव है। अभी वह अन्दर के मरोड़ खाते उफानों से निपटने की कोशिश कर ही रहा था की फ़ोन की घंटी बजी, टैक्सी नीचे आ चुकी थी। उसने अपने मन से हलके बोझों को कन्धों पर टांगा और उस अंजान कमरे को आखिरी बार घूर कर अलविदा कह दिया। बाहर ठंड उतनी नहीं थी जितनी कमरे में लग रही थी। वह पीछे की सीट पर बैठ गया और ड्राइवर ने गाड़ी को एअरपोर्ट के रास्ते मोड़ लिया। टैक्सी के शीशे पर थोड़ी धुंध जमा थी जिसे उसने अपने हाथ से पोछ कर पीछे छूटती दुनिया को देखने लगा। कई इमारतें उठती गिरती गयी, कई सड़कों को बांधती धारियाँ घटती और बढ़ती रही। कभी कुछ राहें चौड़ी, तो कुछ संकरी थी। कही झुग्गी झोपड़ी में धुएँ की सुराख थी, और कही आकाश भेदती चिमनियों की बंदूक। पेड़ों के झुंड कभी ईंट के आसरों से हारते, तो कभी यह आसरें समय की मार से। एक एक करके सब कुछ विलीन होते रहा, कुछ उसके मन की ही तरह, कुछ ध्वस्त और कुछ परस्त। नज़रें हटायी तो सामने बैठे अंजान ड्राइवर को सारथी समान देखा। उसे लगा की कभी उसका अंत भी कुछ ऐसा ही होगा, वह ऐसे ही इन सारे मन के इमारतों और रास्तों को छोड़ अपनी सांसें एक अंजान साँसों के बीच तोड़ेगा। शायद अच्छा बनना कायरता ही है, और सारे चेहरे अंजान है, पर उसे जीने का कोई और तरीका नहीं आता।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment