Saturday, November 23, 2013

सागर की रेत

कितने ही दिन बीत गये है, वह आज भी वहाँ आ जाता है, उस लहर को चेतने। कितनी ही बार समझा चूका है खुद को पर बहकने के लिए बहाने हज़ार है और बहलाने के अलावा उसके पास और कोई रास्ता नहीं सूझता। यह तो ऐसी खाई है जहाँ आँखें मूंदना और नीचे झांकने भर का फर्क है। खैर, अब वह आ ही गया पाँव गीले किये हुए। उसे पता है पानी छिछला होते ही जा रहा है हर दिन के साथ। उस लहर को चपेटने कि कोशिश में भी तो उसका पाँव भी तो पिछला ही रहा है। कुछ चीज़ें होती भी ऐसी ही है, हाथ से निकल जाए तो ही अच्छा है, वरना हाथ में आते ही मुट्ठी बाँध हम उसे नया रूप देने लगते है। समुन्दर के सवेरे कि फैली धुंध है या इस अंतर्द्वद के जंगल में बझी हुई सांसें, यहाँ आहों से ही सहारा मिलता है। रेत आकर उसके पाँवों को छूकर वापस लौट जा रही है। उसने कहा 'मत खेल मेरे साथ, हर दिन ही जंगलों को काट काट कर मैंने बाँध बनाये हैं। पर तेरा यह रिझाता हुआ आकर्षण हर बार ही रिसती हुई दरार बन जाती है।' बचपन में कहानी सुनी थी किसी कि जिसने अपने शरीर को बाँध पे लपेट कर बाढ़ लाने से रोक दिया था। पर मैं, मैं आज भी लकड़ियाँ काट रहा हूँ। उसने नीचे झूक कर लहरों कि रेत को सराहा, न जाने किस युग कि होंगी। ये तो हर पल ही दस्तक दे चली जाती है। उसने एड़ियों को मोड़ कर नयी तराशी हुई रेत को रोक लेना चाहा। अंगूठों से भी घेरा लगा लिया। पर सतह के नीचे भी सतह है, कितने सतहों को वो माप लेता? सरक कर सारे कण पानी कि साथ चले गए। आँहें लेकर फिर सोचा 'क्यों चेतता है वह लहर जहाँ तेरा पाँव जी पिछला है?' असल में यहाँ सवाल अब पूछना नहीं पड़ता, अब तो यह हर भीतर के संवाद का मुद्दा और मदद बन चूका है। वह जानता है कि उसके मोड़े हुए एड़ियों के नीचे बस एक गहराता हुआ कुआँ रह जायेगा। वहाँ ना लहर आएगी, ना सागर की रेत, बस एक गोल आकाश झांकेगा। बस आदत ही ऐसी है कि सच्चाई को भी दिशा भ्रमण से बचाना होता है। याद रखना पड़ेगा 'मत चेत उस लहर को जहाँ तेरा पाँव पिछला है, यह सागर की रेत है, यहाँ हर कदम छिछला है।' कोशिश करेगा कि भूले नहीं, शाय़द मन को हौले हौले बहलाना होगा। पर वह क्या करे, अपने भीतर के कालिख को वह दूसरों पर रंग बना कर तो नहीं पोत सकता ना। थोड़ी देर लहर के साथ चला, अपने आप को भीतर ही कसा और कहा 'तुझे चाँद ही बाँध सकता है, मेरे लिए तू मुमकिन नहीं।'

- ख़ुफ़िया कातिल