Thursday, October 17, 2013

बस स्टॉप

रास्ता सवेरे की भीड़ से खचाखच भरा है। बस हिचकियाँ लेते हुए बढ़ रही है। सुमन पीछे की सीट पर बैठा अपने बाहिने तरफ के खिड़की से बाहर झाँक रहा है। सीट ऊँचाई पर होने के वजह से आस पास की गाड़ियाँ कीड़े की तरह रेंगती नज़र आती है।

'यह देखो मोटरसाइकिल वाले को, बस स्टॉप के पास से कोई गलत तरफ से ओवरटेक करता है! उफ़! इंच दर इंच का फासला लेके ही चलना आता है यहाँ सबको।'

रोड को मसलते हुए यह विशालकाय लाल ए.सी. बस बस स्टॉप के थोड़ा आगे रुकती है। और जब रुकती है तो ऐसे लगता है जैसे की कै करके सब उलटी कर दे। सुमन सीट को सख्ती के साथ पकड़ लेता है। इस बस का टिकट ज़रा महँगा पड़ता है, वरना उस नीली बस में कदम रखो तो जानो, वहाँ झटके खाने के लिए जगह कहाँ? लोहे के ढाँचे में जैसे मानव चटनी पीसा जा रहा हो। गहरी साँस छोड़ते हुए बस का दरवाज़ा खुलता है। सैनानियों की तरह तैयार उतरने वाले यात्री एक एक करना अपना डब्बा और बस्ता दबाये उतर जाते है। कुछ ठीक उसी प्रकार के यात्री वापिस उन खाली सीटों को भरने आ जाते है। तभी हाथ दिखाकर एक बूढ़ा आदमी बस को रुकने का इशारा करता है। सुमन को यहाँ की भाषा को उतना बोध नहीं है पर बूढ़े को कंडक्टर से इतना पूछते हुए समझ गया कि यह बस कहाँ तक जायेगी और उसका भाड़ा कितना पड़ेगा। इतनी जानकारी लेकर वह कुछ पल की मोहलत माँग बस स्टॉप से अपने हाथ में दो झोला उठाये आ जाता है। सुमन टकटकी लगाकर उसकी और देखता है। बूढ़े आदमी ने अपने दोनों झोले को कोने में टिका कर एक खाली सीट को खोल उसपे अपनी जगह बना ली। उसके बाल चांदी की लहर की तरह करीने से सीटे हुए है। चेहरे पे धब्बेदार काली छिटपुट झुर्रियाँ बिखरी हुई है। दाढ़ी भी अधकटी फसल की तरह बिछी हुई है। उसके खूँटी समान गले पर एक ढीला खादी का शर्ट, बोझिल नेहरु जैकेट और घिसा हुआ गमछा, तीनों ही तीन मटमैले केसरी रंग के भेद में लटक रहे है। इसके अलावा रुद्राक्ष, मोती और धागों का जंजाल भी गले पर बसा हुआ है। एक पीले रंग की सीटी भी लटकाई हुई है। एक हाथ में सोने के पानी चढ़ी घड़ी है। दूसरे हाथ में लटकी चीज़ों की जाँच करने में सुमन को मुश्किल हो रही है, बस हिचकोले खाना बंद जो नहीं करती और वह बूढ़ा आदमी भी थोड़ी दूरी पर है। आँख को और नीचे ले जाकर देखा, पैंट पर दोमुहरा मोड़ है। और नीचे। पाँव में मिट्टी के रंग के सैंडल है। नज़र उठाकर फिर से जाँच पड़ताल शुरू की। सुमन को बैठे बैठे पात्र विश्लेषण करने की हमेशा से ही रुचि रही है। रेलवे स्टेशन पर भी घंटों बैठे उसने अपने आस पास के उठते बैठते लोगों को एक अनजान रचना का किरेदार बनाने में देरी नहीं की है। जब नज़र दूसरी बार फेरा तो बूढ़ा आदमी अपने पॉकेट में से भाड़े का पैसा किफायती और संभले हाथों से देता दिखा। पैसे को वापिस हिफाज़त से रख उसने अपने गले में टंगी सीटी को निकाला। वही सीटी जो स्कूल में स्पोर्ट्स टीचर लिए कोहराम मचाते फिरते है। कायदे से सीटी के धागे को लपेट कर एक हाथ में रखा और दुसरे हाथ से अपने पॉकेट में से एक छोटा सा बटुआ निकाला। उसके अन्दर से एक मुचड़ा हुआ पॉलिथीन का तिनका निकालकर उसे खोला। सीटी को उस पॉलिथीन में लपेट कर फिर उस बटुए में डाला और फिर जेब में। सुमन की टकटकी में अब ज़रा और रस आ गया। फुस्स… बस फिर से लड़खड़ा कर रुकी और दरवाज़ा खुला। बूढ़ा थोड़ा अचकचा कर उठा। इधर उधर नज़रें तानी और कदम बढ़ाये सुमन की तरफ बढ़ने लगा। सुमन के सामने वाली सीट खाली है, शायद बूढ़े को नीचे वाली सीट पर दिक्कत आ रही होगी। पर बूढ़ा सुमन की बगल वाली सीट पर बैठ गया। सुमन के अंदर एक हल्की शंका की लहर दौड़ गयी।

'कहीं इसने मुझे घूरते हुए तो नहीं देख लिया था? या फिर किरेदार खुद कहानी बनने आया है?'

पर बूढ़ा तो सुमन के मन तरंग से परे सीट थामे बैठा हुआ है। सुमन ने बूढ़े का दूसरा हाथ देखा। उसपे भी उसके गले के तरह ही कई धार्मिक मालायें लपेटी हुई है। एक स्वस्तिक भी बस के उथल पुथल के साथ झूल रहा है, हाथ में। सुमन ने आँखों के किनारों से ताका, शर्ट का ऊपरी जेब कागज़ पत्तर के गठरी से ठूसा हुआ है, दो कलम भी खोसे हुए है। बूढ़े ने अपनी पैंट की जेब में से कुछ खुले नोट निकाले। सौ के भी एक आध नोट है और दस के नोट थोड़े बिखरे तरीके से रखे हुए है। थोड़ी देर तक नोटों को उलट पुलट कर देखता रहा। दस के नोटों को सही कतार में लगाया। एक पांच का नोट भी है। उस नोट को हाथ में दबाये उसने बाकी सारे नोटों को वापिस जेब में सुला दिया। अब पैंट की दूसरी जेब से उसने मोबाइल फोन का खाली खोल निकाल लिया। खोल गुलाबी रंग का है और रेक्सीन का कपड़ा लगा हुआ है। सुमन की आँखें वापस चौकन्नी हो झाँकने लगी। खोल में से कुछ सेफ्टी पिन चमकते हुए दिखे। बूढ़े ने दुसरे हाथ में थामे पाँच रुपये के नोट को खोल में डाल कर, हाथों से थपकी देकर जेब में डाल लिया। अब ना चाहते हुए भी सुमन का ध्यान एक ललक के साथ बूढ़े के ऊपर ही मंडराने लगा। बूढ़े ने इस बार हाथ शर्ट की जेब में डालकर दस का नोट निकाला और दुहराई हुई आदत के साथ उस नोट को उलटने पुलटने लगा। सुमन इस सम्मोहन के कारनामे से अपने आप को बाहर खींचने के लिए खिड़की की तरफ देखता है। उसका बस स्टॉप आ गया है। वह बूढें की और देखता है। बूढ़ा नज़रें नीचे किये, नोट को पकड़े सूमन के निकलने के लिए जगह बना रहा होता है। बस खुरचती हुई दम तोड़ती है। सुमन बाहर उतरकर आखिरी बार बूढ़े की और देखता है। सीट की आड़ में एक छुपा और झूका हुआ चेहरा बस के साथ आगे बढ़ता चला जाता है।       

- ख़ुफ़िया कातिल 

3 comments:

  1. बहुत सजीव वर्णन बस की गति और बूढ़े की काया और मति का

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