इन सुस्त कमरों के झरोखों से,
कालें सीलन पड़ें कोनों से,
जब झाँकती आती हैं धूल,
तो आज भी उनसे हाथ धो लेता हूँ।
कुछ टूटती इमारतों के ज़ोर से,
कुछ पुष्प मंजरों के शोर से,
इस अनंत कण की वर्षा में,
आज भी कुछ बूँदें पी लेता हूँ।
देखता हूँ उन्हें किरणों पर गिरते
अनमने भाव से मिलते बिछड़ते।
उनकी फिरकतों की हरकत से
आज भी इस मन को बहला लेता हूँ।
इन झरोखों की धूल से ,
आज भी अपने पहरों को परतों में गिन लेता हूँ।
- ख़ुफ़िया कातिल का धूमिल प्रणाम
कालें सीलन पड़ें कोनों से,
जब झाँकती आती हैं धूल,
तो आज भी उनसे हाथ धो लेता हूँ।
कुछ टूटती इमारतों के ज़ोर से,
कुछ पुष्प मंजरों के शोर से,
इस अनंत कण की वर्षा में,
आज भी कुछ बूँदें पी लेता हूँ।
देखता हूँ उन्हें किरणों पर गिरते
अनमने भाव से मिलते बिछड़ते।
उनकी फिरकतों की हरकत से
आज भी इस मन को बहला लेता हूँ।
इन झरोखों की धूल से ,
आज भी अपने पहरों को परतों में गिन लेता हूँ।
- ख़ुफ़िया कातिल का धूमिल प्रणाम
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