Sunday, December 1, 2013

सूरज का सातवाँ घोड़ा

कई दिनों तक वह अपने आप को समझाता रहा -- मत चेत उस लहर को जहाँ तेरा पाँव पिछला है, यह सागर की रेत है, यहाँ हर कदम छिछला है। वह समझा क्या रहा था मानो खुद को कोई मंत्र रटा रहा हो। एक ऐसा मंत्र जो उसके मन पर कसे रस्सियों कि गाँठ ढ़ीली कर दे। पर मन तो वह कुआँ है जहाँ दुहाई या सच्चाई, दोनों ही रसगान बस मेढ़क की टर्र-टर्र बनकर ही गूँजते है। इसे मानवीय प्रवित्ति कहें या कुत्ते की दुम, इसे हर बेचैन पल से निकलने के लिए कोई ना कोई प्रवचन कि आदत पड़ जाती है। हृदय के अंदर चलती उथल पुथल में अपने को डूबता स्वीकार करना जरूरी नहीं समझा जाता क्योंकि सारा ध्यान सिर्फ शब्दों के बने बाँध जोड़ने में लगे रहते है। इसी जाल में फंस कर उसने अपने आप को अब यह रटाने लगा -- मत चेत उस लहर को, तू रेत नहीं धुआँ है। ना मथ उस सागर को जब तुझमे ही कुआँ है। अपने आप को ऊबारने की कोशिश में वह इस कदर बेचैन है कि उलझनों का दलदल उसे खींचे जा रहा है। हताश हो उसने अपने झोले में से एक किताब निकाली, शीर्षक था 'सूरज का साँतवा घोड़ा'। कुछ पन्ने वह पढ़ चुका है। सच बात तो यह है कि उसने यह किताब अंग्रेज़ी अनुवाद में लगभग बारह साल पढ़ी थी। सर्दी की छुट्टियाँ थी और छत पर धूप में चटाई बिछा कर करवटें बदलते हुए उसने पूरी किताब को अपने अंदर घोल लिया था। इतने सालों बाद कुछ याद नहीं कि किताब में क्या था पर एक मीठा दर्द भरा एहसास था जो कि अभी भी याद था। एक एहसास जिसने उसे जीवन के दो मूल रूप का परिचय दिया था। आज, इस वक़्त, इस भीतर कि लड़ाई से जूझता वह उस किताब को फिर पढ़ रहा है पर किसी उपचार के रूप में नहीं। पन्ने बस पलटते गए, मन भी उलझनों को छोड़ माणिक मुल्ला (उपन्यास का मुख्य किरदार) के दुनिया में विचरण करने लगा। कुछ पन्नों ने तो बस थाम लिया और जब विदा लिया तो इस कदर कि अब शब्दों के बाँध ध्वस्त लगने लगे। लाख समझा लो, पर इस मन को बाँधना आसान नहीं, इसे फुसलाअों उन किताबों, कविताओं, रचनाओं से जिसने आज भी बारह साल के गर्म धूप को नम नहीं होने दिया, वह धूप भी एक एहसास है।सिर्फ लहर, रेत और कुआँ, आखिर कब तक इन उपमाओं और अलंकारों में अपने मनोदशा की तस्वीर खोजे? हाँ, कदम है तो ठोकर खायेंगे ही और खाना भी चाहिए। पर हर एक ठोकर के लिए एक मल्हम ज़रूर है। उसके नुस्खे अपने है और उसकी रीत अपनी है। शायद इसीलिए जब भी वह रिश्तों और परिवेश के जोड़ और नाप से विचलित हो जाता है तो अपने कर्म के ही शरण में जाता है। यह कर्म ही उसके रथ का सातवाँ घोड़ा है क्योंकि जब उसने सारे छः घोड़ो को बोझिल कर दिया तो सातवें घोड़े ने ही इस मन को भूलभुलैया में घुमा कर नयी दिशा दी। शायद इसलिए अब रटने को कुछ है नहीं बस एक एहसास है। वह इस पल में आगे बढ़ रहा है। ना दुहाई है और ना सच्चाई है अर्पित करने के लिए। कुँए के मेढ़क भी थोड़े शांत पड़ गए है। भूलभुलैया में भटक के अब देखा जाए।

- ख़ुफ़िया कातिल 

'सूरज का सातवाँ घोड़ा', धर्मवीर भारती की लिखी हुई उपन्यास की कुछ पंक्तियाँ --



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