Sunday, December 8, 2013

पिल्ला

सुमन के हाथ यूँ तो पन्ने पर कलम को लिए फिर रहे थे पर उसकी आँखों के पटल पर वह दृश्य रह रहकर दस्तक दिए जा रहा था। एक नन्हा सा शरीर कैसे पुराने मैले कुचले कपड़े कि तरह सड़क पर पड़ा हुआ था। थोड़ी दूर से ही देखा था पर सुमन के अंदर का भय सच्चाई बन धराशायी हो चूका था। पास जाकर देखा, छोटे छोटे दाँत जमीन से घिसे हुए थे। शरीर पर के रोएँ भद्दे और एक लाल सुखी नदी कि चरमराती रेखाओं कि तरह बिखरे हुए थे। शायद थोड़ा वक़्त बीत चुका होगा। कुछ दो दिन पहले हो तो इसे देखा था। एक दूकान के सामने यह भूरे रंग का पिल्ला ऊन के गोले कि तरह ढ़िलमिलाये दौड़ रहा था। गाड़ी के खिड़की से सिर्फ पल बाहर के लिए ही देखा था पर बस दो सेकंड के झलक में ही जैसे गहरा सम्बन्ध बन जाता है इनसे। कई यादें भी तो जुड़ी है। बचपन में सुमन के पिताजी ने काले और भूरे रंग का अल्सेशियन पिल्ला लाये थे। उसे याद है वह उचक कर आईने में देखता हुआ अपने दाँत साफ़ कर रहा था। आँखों के किनारों से जब पापा के हाथ में उस कुलमुलाते हुए पिल्ले को देखा तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। याद भी नहीं कि कुल्ला किया कि नहीं। उसका नाम लूसी रखा गया था। सर्दी का मौसम था। लूसी को रखने के लिए लकड़ी के क्रेट में बोरे और फूस को बिछा कर नर्म बिस्तर बनाया गया था। एक रात जब लूसी उचक कर क्रेट से बाहर गिर पड़ी थी तो सुमन ने अपनी माँ के गोद में सर रखकर आँसू भी बहाये थे। सुमन अतीत और आज के आना तानी से तंग आकर उसने काम छोड़ वापस उस पिल्ले को देखने के लिए निकल पड़ा। कुछ दो घंटे पहले जब वह घर आ रहा था तो रास्ते पर उस पिल्ले को पड़ा हुआ देखा। माँ को गाड़ी रोकने के लिए कहा और तुरंत नीचे उतर कर पास जाकर देखा। उस ऊन कि गोल शारीर में कोई जान बाकी नहीं थी। नज़रें उठाकर इधर उधर देखा पर उस गली में बसी दुनिया में कोई भी हृदय की हलचल नहीं दिखी। पर वह जानता था कि उसे इसकी उम्मीद भी नहीं थी। पास कूड़े के ढेर में से एक गत्ते का टुकड़ा उठाया और पिल्ले को सड़क के किनारे कर दिया। सुमन अपने आप को समझा रहा था कि कम से कम अब कोई गाड़ी इसे बार बार तो नहीं रौंदेगी। पर घर जाकर भी उसकी मनोस्तिथि उस पिल्ले के साथ सड़क पर ढ़ेर थी। वह जानता था कि हर जीवन का अंत सुनहरे लिबास में लिपट कर नहीं होता। अपने आप को समझा रहा था कि चील कौवें उस पिल्ले को जीवन मरण के गोल चक्र के आड़ में ले लेंगे। पर मन तो उतारू था कहीं और। आख़िरकर जब सुमन ने पिल्ले के आस पास कहीं ज़मीन खोजनी शुरू कि जहाँ दफनाया जा सके तो उसे निराशा ही हाथ लगी और कुछ अपने अंदर कि कायरता भी। निराशा इस बात कि कहीं भी अब नर्म मिट्टी नहीं मिलती। हर तरफ या तो कूड़े करकट का ढेर नहीं तो नयी इमारतों को बनाने में लगी गिट्टी बालुओं का द्वीप। कायरता इस बात कि लगी कि क्या वह अपने प्रयास में उतना रुझारुपन पा सका। चीटियाँ अब अपने काम में जुट चुकी थी। सवेरे तक जब गंध फैलेगी तब ही इस समाज कि नज़र इस तरफ पड़ेगी। शायद यह सबूत ता उसके आँखों के सामने कि किस तरह इंसानों के समाज की परिभाषा सिर्फ इंसानों तक ही सीमित रहती है, उसमें जीव सिर्फ मनुष्य है और जन्तु वर्ग गायब है। अपने आप को हर श्रेणी में सबसे ऊँचा दर्जा देने कि ऐसी आदत सी लग गयी है कि बाकी सब कुछ एक निरर्थक भार है। सुमन इन सब से जूझ ही रहा था कि बगल में पटाके की आवाज़ आयी। एक हफ्ते बाद भी दिवाली अभी तक गयी नहीं थी। उस शोर में अपने आप और इस समाज से बस वह इतना ही कह सका कि मना लो अपने बर्बादियों की आतिशबाजी पर मेरे समाज में तुम्हें बस दुत्कार ही मिलेगी।  

- ख़ुफ़िया कातिल 

Sunday, December 1, 2013

सूरज का सातवाँ घोड़ा

कई दिनों तक वह अपने आप को समझाता रहा -- मत चेत उस लहर को जहाँ तेरा पाँव पिछला है, यह सागर की रेत है, यहाँ हर कदम छिछला है। वह समझा क्या रहा था मानो खुद को कोई मंत्र रटा रहा हो। एक ऐसा मंत्र जो उसके मन पर कसे रस्सियों कि गाँठ ढ़ीली कर दे। पर मन तो वह कुआँ है जहाँ दुहाई या सच्चाई, दोनों ही रसगान बस मेढ़क की टर्र-टर्र बनकर ही गूँजते है। इसे मानवीय प्रवित्ति कहें या कुत्ते की दुम, इसे हर बेचैन पल से निकलने के लिए कोई ना कोई प्रवचन कि आदत पड़ जाती है। हृदय के अंदर चलती उथल पुथल में अपने को डूबता स्वीकार करना जरूरी नहीं समझा जाता क्योंकि सारा ध्यान सिर्फ शब्दों के बने बाँध जोड़ने में लगे रहते है। इसी जाल में फंस कर उसने अपने आप को अब यह रटाने लगा -- मत चेत उस लहर को, तू रेत नहीं धुआँ है। ना मथ उस सागर को जब तुझमे ही कुआँ है। अपने आप को ऊबारने की कोशिश में वह इस कदर बेचैन है कि उलझनों का दलदल उसे खींचे जा रहा है। हताश हो उसने अपने झोले में से एक किताब निकाली, शीर्षक था 'सूरज का साँतवा घोड़ा'। कुछ पन्ने वह पढ़ चुका है। सच बात तो यह है कि उसने यह किताब अंग्रेज़ी अनुवाद में लगभग बारह साल पढ़ी थी। सर्दी की छुट्टियाँ थी और छत पर धूप में चटाई बिछा कर करवटें बदलते हुए उसने पूरी किताब को अपने अंदर घोल लिया था। इतने सालों बाद कुछ याद नहीं कि किताब में क्या था पर एक मीठा दर्द भरा एहसास था जो कि अभी भी याद था। एक एहसास जिसने उसे जीवन के दो मूल रूप का परिचय दिया था। आज, इस वक़्त, इस भीतर कि लड़ाई से जूझता वह उस किताब को फिर पढ़ रहा है पर किसी उपचार के रूप में नहीं। पन्ने बस पलटते गए, मन भी उलझनों को छोड़ माणिक मुल्ला (उपन्यास का मुख्य किरदार) के दुनिया में विचरण करने लगा। कुछ पन्नों ने तो बस थाम लिया और जब विदा लिया तो इस कदर कि अब शब्दों के बाँध ध्वस्त लगने लगे। लाख समझा लो, पर इस मन को बाँधना आसान नहीं, इसे फुसलाअों उन किताबों, कविताओं, रचनाओं से जिसने आज भी बारह साल के गर्म धूप को नम नहीं होने दिया, वह धूप भी एक एहसास है।सिर्फ लहर, रेत और कुआँ, आखिर कब तक इन उपमाओं और अलंकारों में अपने मनोदशा की तस्वीर खोजे? हाँ, कदम है तो ठोकर खायेंगे ही और खाना भी चाहिए। पर हर एक ठोकर के लिए एक मल्हम ज़रूर है। उसके नुस्खे अपने है और उसकी रीत अपनी है। शायद इसीलिए जब भी वह रिश्तों और परिवेश के जोड़ और नाप से विचलित हो जाता है तो अपने कर्म के ही शरण में जाता है। यह कर्म ही उसके रथ का सातवाँ घोड़ा है क्योंकि जब उसने सारे छः घोड़ो को बोझिल कर दिया तो सातवें घोड़े ने ही इस मन को भूलभुलैया में घुमा कर नयी दिशा दी। शायद इसलिए अब रटने को कुछ है नहीं बस एक एहसास है। वह इस पल में आगे बढ़ रहा है। ना दुहाई है और ना सच्चाई है अर्पित करने के लिए। कुँए के मेढ़क भी थोड़े शांत पड़ गए है। भूलभुलैया में भटक के अब देखा जाए।

- ख़ुफ़िया कातिल 

'सूरज का सातवाँ घोड़ा', धर्मवीर भारती की लिखी हुई उपन्यास की कुछ पंक्तियाँ --