Friday, July 5, 2013

मर्तबान

अब बस, अब बस
अब नहीं बनता इरादों का मर्तबान
किनारे पिघल चुके हैं
काँच के टुकड़े पड़ गये धुंधले
अब इनसे नहीं झाँक पाते मेरे पैमान
कोने अब खोखले
पूछते हैं मेरा पता, मेरा सामान
शीशियों में छोड़ नहीं पाता कुछ
गले की धारियों में ही बसते अरमान
कई दरिया रखे थे स्थिर
धूप में सेका था कई सालों को
पर कुछ चींटियों ने आज भी याद रखा हैं मेरा कल
अब बस, अब बस
ढांचों से जोड़ने को अब कुछ नहीं बाकी
अब बस, अब बस
अब नहीं बनता इरादों का मर्तबान
- ख़ुफ़िया  कातिल 

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