Thursday, May 16, 2013

मनेर शरीफ़ की सुबह

एक सफ़र की परिभाषा सिर्फ उसके मुकाम से नहीं होती, रास्ते में टूटती मूंगफली भी यह जानती है जब तक सड़कों को छोड़ पाँव पुराने ठिकानों को नहीं याद करेंगे तो वह सफ़र बेराग हो जायेगा। कभी पीपल के पेड़ पर धागों की उलझन देखी हैं? अगर पीपल का पेड़ एक राह है तो धाँगे की हर एक गाँठ कुछ परिचित अपरिचित ठिकानों का मुंडेरा। बचपन की बात है, सपरिवार हम जब भी आरा से बरौनी का सफ़र अपने मारुती 800 में बैठे तय करते थे तो पापा अक्सर ही मनेर के बाजारों से परे बने एक दरगाह पर गाड़ी रोक देते थे। गाड़ी से पाँव बाहर रखते ही एक छोटे से तालाब में सूफी संतों के दरगाह की लाल प्रतिबिम्ब तैरती दिखाई देती थी। तालाब के एक परे सैलानियों के लिए छोटी सी कैन्टीन थी और उस परे दो सूफी संत - मखदूम याह्या मनेरी और मखदूम शाह दौलत की छोटी बड़ी दरगाह। वहाँ आंधे घंटे बैठ कर चाय-कॉफ़ी पीना और तस्वीरें खींचना, बस इतना सा ही था उस ठौर का आकर्षण, पर सफ़र दर सफ़र वहाँ पल गुजारना एक आदत सी बन गयी थी। कई सालों के बाद मैंने एक बार उस दरगाह के पत्थरों से सजी ज़मीन पर पाँव रख अंदर मौन उन सूफी संतों की मजार देखने की ठानी। शायद उस से पहले ज़रुरत महसूस नहीं हुई थी। वक़्त का दोष था, हालात बिगड़े थे, ऐसे में इंसान मूक सेजों से भी फूल माँगने लगता है। आज भी उस धुप में अपनी परछाई उन लाल पत्थरों पर रेंगती हुई याद है। कई दबे शब्दों से गुजारिश भी की थी पर सब बिखरता ही रहा। मैंने फिर भी उम्मीद बाँध एक बार फिर वहाँ कुछ सालों बाद कदम रखा। वह दिन भी याद है, उस दिन आसमान कोयले से पोती हुई भींगी रुई थी। उस बारिश की मार भूलना मुमकिन नहीं। पर धीरे-धीरे उम्र और परिस्थितियों ने समझा दिया था कि दोष और उपकार मूक दीवारों में दफना कर तसल्लियों पे जीना एक धोखा हैं। पिछले नवम्बर मैं और मम्मी मनेर शरीफ गए थे। हवा में धुंधली सी ठंड थी पर कई सालों बाद दरगाह को देख रहा था। कुछ दीवारें काली पड़ गयी थी। वापस उन लाल दीवारों को सराहा पर इस बार कुछ माँगने के लिए नहीं आया था। शायद बस अपने डर को बतला रहा था की आज मैं हार के भी जीत गया हूँ। आज माँगने के लिए कुछ नहीं है। वहीँ बैठ कर मम्मी के साथ उस दरगाह को स्याही की लकीरों में बाँधी, चाय पी और वापस सफ़र पर निकल पड़ा।





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