Tuesday, August 23, 2011

चाय-बिस्कुट

डुबाया बिस्कुट चाय में,
पर आया आधा हाथ में.
चम्मच ना दिखा दायें बायें,
भागे दोनों हाथ फैलाएं.
नापा हमनें प्यालें का तल,
नरम हो चूका था करारा पल.
आहें भर किया संतोष,
सब्र के मीठे फल का दोष.
ऐ बिस्कुट! नीयत ही तेरी डूबी है,
मेरी तबियत के लिए तू जरूरी है.
तू चाय के लहरों में गोंते खा,
क्यूँ बनता है तू सूर्पनखा.
पर लेनी थी अभी आखिरी घूँट,
खुरेदेंगे जो गया था छूट.
यह प्याला पाताल नहीं इतनी गहरा.
तुझे तो पा ही लेंगे, मेरे पास चम्मच जो ठहरा.

- खुफिया कातिल का चाय भरा प्रणाम.

2 comments:

  1. Lovely poem Bunty, I feel the pain of losing that biscuit.

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  2. badi madhur rachna hai....tumhare chai-biscuit se bhi madhur!

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