आज बहुत दिनों बाद लिख रहा हूँ और वह भी हिंदी में. जहाँ तक मैं अपने इस मस्तिष्क पटल की रेखाओं को नाप सकता हूँ, उसके अनुसार तो इस भाषा से लिखित नाता तोड़े हुए पाँच साल हो गए हैं. और कभी कभार की टूटी फूटी पंक्तियों को जोड़ना मैं एक बहिष्कृत प्रयोग ही मानूँगा. फिर आज क्यूँ वापिस इस भाषा की ओर कलम बढ़ायी है? शायद इसका जवाब यही हो सकता है की यह हस्ती है धागे की एक डोर से दुसरे डोर पर फिरना पर आखिरी गाँठ वापिस उसके आगार पर ही बँधती हैं. परन्तु इस धागे को एक सुई में पिरोने की वजह और गहरी है.
इस बार घर आये हुए ३ महीनें हो गए हैं और होली के अवसर पर घर आना एक आदत सी बन गयी है. बंगलौर से पटना तक का सफ़र दो दिनों में कटता हैं और वह भी रेलगाड़ी की मद्धम और तीव्र गति से जन्मी अंगड़ाई में सराबोर एक अलग कथा हैं. वैसे तो कॉलेज के दिनों में कई बार सफ़र किया है, पर इस अलसाए से छूकछुक मंत्र में पर जब कुछ समय बीत जाए तो पुरानी यादें नए अफ़साने बन जाते है. मेरे सामने के सीट पर एक जेओग्राफी ओनौर्स के छात्र बैठे हैं. कदकाठी से अगर अनुमानित करूं तो २८ साल के होंगे. उनके बगल में एक वृद्ध महिला बैंठी हैं जो अपने बेटे के यहाँ से कुछ हफ़्तों की छुट्टी मना कर हंसी ख़ुशी वापिस पटना लौट रही हैं. मेरे बगल में एक लगभग ५० साल के एक पुरुष बैठे हैं. पेशे से वह बिहार इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के इंजिनियर हैं और उसी सिलसिले में बंगलौर की यात्रा कर लौट रहे हैं. बगल के सीट पे एक दम्पति सफ़र कर रहे हैं. उनके चेहरे पर नए रिश्ते के उल्लास से ये साफ़ जाहिर है के शादी हुए एक साल भी नहीं हुए हैं. और जब पति अपने पत्नी की सुरक्षा खातिर हर वक़्त ही सीट के पर्दें खिसका कर उसके चेहरे को ढांके तो संदेह की बात छू मंतर हो जाती है. भले ही कुछ सालों में पति अपने पत्नी की एक खांसी पर एक रुमाल तक ना बढाएं. सफ़र जैसे मीलों को तय करता है वैसे वैसे यात्री भी परिचय शब्द की भूमिका से आगे कदम लेते हैं. जेओग्राफी औनोर्स के छात्र इस मामलें में एक कदम आगे ही हैं. उनके हर व्याक्यें और हर शब्द एक 'क्या?, सही कहे ना?' पर ही रुकते है. ऐसे में आदर स्वरुप चुप्पी मुमकिन नहीं और कुछ ही घंटों में बातचीत के नए द्वार खुल गए. मैं आदत अनुसार अपने साथ रखी किताब के शब्दों में तल्लीन हूँ. सोमेर्सेट मौघ्म की किताब के पन्ने चाटते हुए भी मैनें आस पास की बांतों को भी अपने से परे नहीं रखा. जल्द ही मालूम पड़ा की वह छात्र पटना से है, दिल्ली में उसने कॉलेज की पढाई की और अब ऍम. बी. ऐ. की राह देख रहा है. साथ बैठी महिला की संतान भी बंगलौर में ही विराजमान हैं. इंजिनियर साहब बिहिया नाम के गाँव से हैं पर अब पटना में ही बस गए हैं. उनके दो बेटे है, दोनों ही इंजिनियर हैं. एक जर्मनी में नौकरी कर रहा है और दूसरा गुडगाँव में. साथ में बैठे दम्पति बंगलौर में रहते हैं. मेरी ही तरह वह भी अपने घर होली मनाने जा रहे हैं. डुमराव नामक गाँव, पुरुष का जन्म स्थान है और उनकी पत्नी दिल्ली में पली बढ़ी है, पर हैं बिहार की ही. अपने आप को उस परिवेश में रखकर जब मैंने दूर से देखा तो पाया की यहाँ छह सीट पर एक मानव विज्ञान की प्रयोगशाला बिठाई गयी हुई है. और अगर इनको परखे तो एक ढांचा दिखने को मिलता है. मेरे अन्दर कौतुहल के साथ कुछ पंक्तियाँ मरोड़ खाने लगी -
तेरी किताब के मलबों में बसा एक गाँव,
छोड़ जिसकी छाओं जाता तू कहीं और है.
छोड़ जिसकी छाओं जाता तू कहीं और है.
हैं तेरे धूमिल कांच के घर,
पर इन परछाइयों में तेरा कौन है.
पर इन परछाइयों में तेरा कौन है.
घर तेरा आज शहर है.
यह शहर-शहरों का गाँव है.
यह शहर-शहरों का गाँव है.
गाँव तो पन्नों में दब गया,
इन्हें दफनाता कोई और है.
इन्हें दफनाता कोई और है.
यूँ तो तेरी राख उड़ चली झकझोर,
ढूंढेगी वह गलियाँ जिसमे बासी तेरा शोर है.
ढूंढेगी वह गलियाँ जिसमे बासी तेरा शोर है.
किलकारियाँ जहां भरी थी,
वह गलियां तो बस अब एक टूटी ठोर है.
वह गलियां तो बस अब एक टूटी ठोर है.
मिट्टी के छत प्यासे से रह जायेंगे,
तेरे तृप्त खँडहर के यह प्याले टुकड़ो में बह जायेंगे.
तेरे तृप्त खँडहर के यह प्याले टुकड़ो में बह जायेंगे.
नदियों का तो ढेर है सागर वही पे मिल जायेंगे.
धूल की यह राख तेरी कण कण में बिक जायेंगे.
धूल की यह राख तेरी कण कण में बिक जायेंगे.
शहर आज बड़े शहरों का गाँव बन गया है. इस मानव प्रयोगशाला में एक परिवार उठा लीजिये. उस परिवार के साथ आपको एक सीढ़ी भी मिलेगी और साथ ही कई तल्लो में बटा हुआ एक मकान. निचले तल्ले पर एक खेत और उस से लगी एक झोपड़ी मिलेगी. दुसरे तल्ले पर आपको रेल के पटरी से जुड़ी एक शहर का किराए का कमरा. यह तल्ले धीरे धीरे महानगर और कायाकल्प के महापात्र बन जायेंगे जिसमे कस्बो के भाँती कई संस्कृतियाँ विलीन सी मिलेंगी. यही बन गया है मानव का विकास द्वार और उस से बनती बुनती रेखाएं. शायद अब खनकती हुई छुरी कांटो से सजी थाल में खाने की आदत सी हो गयी है. और इसी जीवन ढर्रे के हम मोहताज़.
नज़र उठा के देखा तो इंजिनियर बाबु अपने बेटे के बारे में बता रहे हैं - "अब उसका मन वहीँ लगता है, बोलता है की पटना गाँव हैं. अब हम भी क्या करें. उन लोगो का काम भी वैसे ही जगह है. फिलहाल तो हम खुद की देखभाल कर ही सकते हैं. अपनी नौकरी है सरकार की तो कष्ट नहीं है. हाँ याद तब आएगी जब ६० के ऊपर पहुँच जायेंगे. देखते है तब तक क्या होता है." इधर पास बैठे दम्पति भी बताने लगे अपने जीवन के बारे में. कैसे उन्हें अभी भी भोजपुरी में बात करना अच्छा लगता है, चीनी से चुस्त चाय का जायका ही गाँव होता है. कैसे बंगलौर में उन्हें अपनी पसंद का व्यंजन लिट्टी खाने के लिए १५० रुपये देने पड़ते हैं, वह भी सिर्फ २ टुकड़ो के लिए. बातें बस यूँ ही अपने छेत्ररेखा को बांधते और खोलते रही. कभी बिहार के इतिहास तो कभी नितीश की सरकार. जो हाथ बड़े स्टेशन पर केक के लिए उठे उसने उसी चाव से छोटे गुम्टिओं पर हरे चने भी खाए.
इस सफ़र के अंत पर आकर ऐसा लगा की जैसे इस विकास के सीढ़ी पे गठित और लाचार सा हो गया है यह दौर. हर कोई बस इसपर आँख मूंदें विस्तृत कदमों से दौड़ पड़ना चाह रहा है पर अन्दर ही अन्दर उसे कुछ कचोट रहा है. उसके बढ़ते क़दमों के प्रबल साहस को दीमक की भांति कुरेद कुरेद कर उसे नीचे देखने को मजबूर कर रहा है. उसे अपने गलियों में खेले हुए गिल्ली डंडे के खेल की चोट अभी भी अशांत कर रही है. शायद इसे ही मोह माया कहते है या फिर विकास के अखिल संसार की माँग. या फिर यह संस्कृति और संस्कार किसी भी धागे में बांधे नहीं जा सकते. इसे किसी भी रीति रिवाज़ के खोल में संजो के रखना मुमकिन नहीं. यह यूँही रंग बदलते और ढालते रहेगी, कभी यह संपूर्ण गोल आकार लेकर वापिस एक चट्टान और समुन्द्र बनेगी और कभी यह क्रांतियों का इंतज़ार करेगी. इसे स्थिर रखना ही एक मोह है. इसलिए यह सीढ़ी अभी कई रूप लेगी और इस पर दौड़ता इंसान धराशायी होगा और नए रास्तों को पनपता हुआ भी देखेगा. मैंने भी तो इसी सीढ़ी पर कदम रखा हैं. शायद इसलिए आज मैं हिंदी में लिख रहा हूँ. क्यूंकि मैं भी इसी तरह असहाय इस सीढ़ी पर जूझ रहा हूँ.