एक तमन्ना और ख्वाबों का मंज़र,
कंपित लहर दर लहर
कहीं खो गया हैं समंदर.
एक चक्रव्यूह था.
सोखा इसने हर मनोरंग अंदर.
कैसे सींचू इस अथाह को अथाह,
मंद से पड़ गए है मेरे खंजर.
धार को लहू और लहू को धार से मांझू,
कल्पित से तेज को उत्तेजित करूँ निरंतर.
चीर डालूँ एक दरिया,
दूर कर दूँ फासलों का अंतर.
इस सूखे की राख में,
बढूँ बन कर मैं सिकंदर.
खंडित से माटी को दूँ अंकुर,
और धब्बे से चित्त को छाया का जंतर.
अल्प विरामों को एक विराम दे दूँ,
इस विराम श्वास को भर लूँ मैं पंजर पंजर.
am left speechless at your versatile talents!
ReplyDeletei like :)
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